सम्भावना क्लिनिक के पच्चीसवें स्थापना दिवस पर एक दिली गुज़ारिश
यूनियन कार्बाइड के ज़हरीले कीटनाशक कारखाने के पास बसी कच्ची बस्ती की एक गली में एक रात एक बूढ़ी माँ मेरे कान में फुसफुसाई – “ बेटा, तुम अपना खयाल रखना, हम तो नरक में जी रहे हैं।“
उस रात के इतने सालों बाद आज भी उसके शब्द मुझे सता रहे हैं।
उसके ये लफ्ज़ 2-3 दिसम्बर की उस ख़ौफनाक रात के काफी बाद बोले गए थे, जब बिना किसी चेतावनी के मिथाइल आइसोसाइनेट गैस कार्बाइड के कारखाने से रिसने लगी जिसके चलते हज़ारों जाने गईं और लाखों तबाह कर दी गईं। वज़न में हवा से भारी यह गैस गुपचुप उन तंग घरों की ओर बढ़ी जो महज़ 200 गज़ की दूरी पर बसे थे और जिनमें हज़ारों परिवार सो रहे थे।
इस त्रासदी के एक दशक बाद 11 देशों के 14 चिकित्सा विशेषज्ञों ने भोपाल के इस ज़हरीली गैस से प्रभावित लोगों के स्वास्थ्य पर इसके दूरगामी असर का एक दस्तावेज तैयार किया। इसमें पाया गया कि सबसे ज्यादा नुकसान श्वसन, प्रजनन, रोग-निरोधक और तंत्रिका प्रणाली पर हुआ था।
विशेषज्ञों ने यह भी पाया कि कार्बाइड गैस से प्रभावित लोगों को जिस तरह की देखरेख और उपचार की ज़रूरत थी वह उन्हें नहीं मिल रही थी। और तो और सरकारी अस्पताल में इलाज लेने 4 लाख लोगों में से ज्यादातर लोगों को ऐसी दवाएं दी जा रही थीं जो उनकी हालत को बदतर बना रही थीं।
इन विशेषज्ञों ने सोचने के तरीके में बुनियादी बदलाव लाने का सुझाव दिया, उन्होंने सलाह दी कि ज़िन्दगी भर बनी रहने वाली इन बीमारियों से निपटने के लिए समुदाय आधारित क्लिनिक होना चाहिए जो इलाज में तर्क-सम्मत, गैर-नुकसानदेह तरीकों का इस्तेमाल करते हों।
हमने शून्य से शुरूआत की
हमारे एक छोटे-से समूह को मालूम हो चला था कि पीड़ितों के सही इलाज के लिए दरअसल क्या किया जाना चाहिए, पर उसे करने के लिए हमारे पास एक रुपया तक नहीं था। सो हमने दूसरों से मदद मांगी।
इंग्लॅण्ड के एक दोस्त ने वहाँ के नामी अखबार ‘गार्जियन’ में एक अपील लिखी और सैंकडों लोग मदद को आगे आए। उनकी उदारता ने हमारे इस विश्वास को और मज़बूत किया कि “हमदर्दी के सहारे पीड़ा और निराशा की स्थिति को भी एक सम्भावना में बदला जा सकता है|”
जल्द ही हमने सम्भावना ट्रस्ट का पंजीकरण करवाया। अपने क्लिनिक के लिए हमने कार्बाइड कारखाने और उससे तबाह हुए समुदायों के करीब ही एक छोटी इमारत खरीदी। 1 सितम्बर 1996 को इतवार था, सो हमने क्लिनिक के दरवाज़े 2 सितम्बर 1996 के दिन खोले। हमारे शुरुआती मरीज़ों के चेहरे मुझे अब तक याद हैं।
उसी श्रापग्रस्त कारखाने के साये मे हम पिछले पच्चीस बरसों से एक आरोग्य बाग की मानिंद बढ़े हैं। हमारे पिछले क्लिनिक में चिकित्सकों को बैठने के लिए दो कमरे और दवाएं बांटने के लिए आधा कमरा था। आज यह क्लिनिक दो एकड़ में पसरा है और उसकी इमारत दस गुनी बड़ी है। हमने शुरुआत 12 कार्यकर्ताओं से की थी, आज हम 57 हैं। हमारे आधे से ज़्यादा कार्यकर्ता या तो इस त्रासदी से बच निकले लोग हैं या उनके बच्चे हैं।
25 बरसों की हमदर्दी ने क्या सम्भव किया
हमने अपना ध्यान ऐसे उपचार पर केन्द्रित किया जो पहले से घायल शरीरों को और नुकसान न पहुँचाये। हमने आयुर्वेद से हज़ारों ऐसे मरीज़ों को राहत पहुँचाई जो असाध्य ऑटो-इम्यून रोगों, जैसे सोराइसिस, गठिया से परेशान थे। योग से हमने सैकड़ों ऐसे लोगों को स्थाई राहत पहुँचाई जो फेंफड़ों की बीमारियाँ, सायटिका या सर्वाइकल स्पोंडीलाइसिस से त्रस्त थे।
जडी.बूटी उगाने के लिए कृत्रिम रसायनों का इस्तेमाल किए बिना हमने पास के जंगलों की मिट्टी में पाए जाने वाले जीवाणुओं को एकत्रित करके इस्तेमाल किया, हमारे जड़ी-बूटी के बगीचे में 100 से भी ज़्यादा औषधीय पौधे हैं। अपने क्लिनिक में निर्मित 87 किस्म की आयुर्वेदिक दवाओं की 60 प्रतिशत सामग्री हमें इसी बगीचे से मिलती है।
हमने अन्र्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में भोपाल त्रासदी के गैस पीड़ितों के बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़े असर पर शोध पत्र प्रकाशित किए। हाल ही में हमने ऐसे फंगल संक्रमणों के लिए जड़ी-बूटियों से बनी दवाइयाँ तैयार की जो आधुनिक उपचार से ठीक नहीं हो रहे थे।
अपने सामुदायिक स्वास्थ्य प्रयासों से हम पिछले 6 बरसों में यह सुनिश्चत कर सके हैं कि मलेरिया और डेंग्यू न फैले, कारखाने के आसपास की 40 हज़ार की आबादी में टीबी का संक्रमण कम हो। मौजूदा महामारी के दौरान हमारे समुदाय आधारित प्रयासों की सराहना अन्र्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने भी की है।
सम्भावना को बचायें
ये तमाम उपलब्धियाँ अकेले की नहीं हैं। दुनिया के 45 देशों के 30 हज़ार साथी हमारे साझेदार रहे हैं। इन्होंने दशकों से संगीत उत्सवों में कचरा बीन कर, मैरोथॉन दौड़ कर, स्काईडाइविंग कर और तमाम दूसरी चुनौतियों को स्वीकार करके हमारे काम को सम्भव बनाया है।
पर जब अचानक अक्टूबर 2019 में गृह मंत्रालय ने सम्भावना के एफसीआरए को खारिज कर विदेशी चंदे के इस्तेमाल पर पाबन्दी लगा डी तब से हमें पूर्व समर्थकों से एक रुपया तक नहीं मिल पा रहा है।
इससे हमारे इलाज़ के काम को भारी नुकसान पहुँच रहा है। पाँच के बदले आज हमारे पास केवल तीन डॉक्टर हैं। हमारे मरीज़ों की संख्या आधी हो चुकी है, ओर उनमें से भी कुछ को हमें खाली हाथ लौटाना पड़ता है। हम अपनी कुछ दवाएं बना ही नहीं पा रहे हैं। आर्थिक संकट के इस दौर में हमारे कार्यकर्ताओं ने स्वेच्छा से अपने वेतन में 30 प्रतिशत की कटौती की है, फिर भी हम समय से उनका वेतन भुगतान नही कर पाते हैं। हमारे कर्जे तेज़ी से बढ़ रहे हैं| हम प्रॉविडेंट फंड का अपना योगदान भी नहीं भर पा रहे हैं जिस से हमारे प्रबंधक न्यासी को जेल की सलाखों का सामना करना पड़ सकता है।
पर अपना काम करना हम बन्द नही कर सकते, न करेंगे। जिन लोगों को हम अपनी सेवायें देते आये हैं उन्हें इन सेवाओं की उतनी ही ज़रूरत है जितनी ज़िन्दा रहने के लिए भोजन की और सांस लेने की। हमारे पास जो भी मरीज़ आते हैं, चाहे वे 37 साल पहले रिसी गैस से पीड़ित हों या आज ज़हरीले पानी से बीमार पड़े हों, सबका ही पूरे सम्मान और स्नेह के साथ स्वागत किया जाता है। इसलिये, क्योंकि हम चाहे कितनी ही मशक्कत क्यों न करें हम उनके लिए पर्याप्त कर ही नहीं सकते। हम कल्पना तक नही कर सकते कि हमारा काम पूरी तरह ठप्प हो जायेगा।
अब जब हमारी वित्तीय स्थिति इतनी कठिन है कि काम के बन्द होने की सम्भावना एक सच्चाई लगने लगी है, उस बूढ़ी माँ के शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं। इन सघन काले पलों में मैं यह भूल नहीं सकता कि 25 बरस पहले निहायत अनजान लोगों ने एकजुट होकर हमदर्दी , प्रेम और भाईचारे के सहारे गहरे अवसाद को निरोग करने की ताकत में तब्दील कर दिया था।
हम आपको न्यौता देते हैं कि आप भोपाल में हमारे काम के 25 वर्षों को बताने वाली 25 प्रस्तुतियों को देखें, हम इन्हें अपनी बेबसाइट पर एक-एक कर हर दिन अपलोड करेंगे।
अगर आपको लगे कि हमारा काम बचाने लायक है तो बराए मेहरबानी हमें अपना योगदान दें, खुले दिल और हाथों से। सम्भावना की ओर से तहेदिल से शुक्रिया।
हरि प्रसाद जोशी, प्रबन्धक न्यासी,
सम्भावना ट्रस्ट